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SHRIMAD BHAGVATAMRIT श्रीमद्भागवतमृत
by   Dr. Janakraj sharma (Author)  
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SHRIMAD BHAGVATAMRIT श्रीमद्भागवतमृत
Product Description

श्रीमद्भागवत प्रेमी प्यारे बन्धुओं ! आपको यह जानकर अति प्रसन्नता होगी कि पिछले कुछ समय से मेरे मन में यह उत्सुकता थी कि यदि श्री मद्भागवत महापुराण का संक्षिप्त प्रणयन कर लिया जाए तो यह एक सप्ताह की निश्चित समयावधि में ही श्रोतागण के सम्मुख भी प्रस्तुत किया जा सकता है। आधुनिक युग की भागदौड़ भरी जिन्दगी में समयाभाव के कारण धार्मिक ग्रन्थों का विस्तृत अध्ययन गृहस्थी के लिए असम्भव प्रतीत होता है। अतः इस बात से भी यह अति महत्त्वपूर्ण हो जाता है कि हम अपने धार्मिक ग्रन्थों से कुछ तो परिचित हों। निश्चित ही आधुनिक संचार साधनों से हमें इनके श्रवण का लाभ प्राप्त हो रहा है परन्तु सभी प्रकार के आयोजनों का अपना अलग महत्व है। भक्तों को जब व्यास पीठ के सम्मुख बैठकर नाम संकीर्तन, प्रभु गुणगान, कथा वार्ता श्रवण का अवसर मिलता है तो वे इसे अपने कर्मों का सुफल तथा प्रभु प्रसाद मानते है। वास्तविक सत्संग तो सामूहिक प्रभु गुणगान करने के लिए आयोजन का ही नाम है। भले ही उसका प्रारूप समय, स्थान और युगीन परिस्थितियों के अनुसार बदलता रहा हो। प्राचीन युग में ऋषि, मुनिगण, यज्ञ, सत्संग आदि का आयोजन तीर्थ स्थलों पर करते थे। जिसका उल्लेख तत्कालीन ग्रन्थों में प्रचूर मात्रा में उल्लिखित है।

Product Details
Book Language Hindi
Binding Paperback
Category Books   Health, Family & Personal Development   Spirituality  
Weight 200.00 g

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श्रीमद्भागवत प्रेमी प्यारे बन्धुओं ! आपको यह जानकर अति प्रसन्नता होगी कि पिछले कुछ समय से मेरे मन में यह उत्सुकता थी कि यदि श्री मद्भागवत महापुराण का संक्षिप्त प्रणयन कर लिया जाए तो यह एक सप्ताह की निश्चित समयावधि में ही श्रोतागण के सम्मुख भी प्रस्तुत किया जा सकता है। आधुनिक युग की भागदौड़ भरी जिन्दगी में समयाभाव के कारण धार्मिक ग्रन्थों का विस्तृत अध्ययन गृहस्थी के लिए असम्भव प्रतीत होता है। अतः इस बात से भी यह अति महत्त्वपूर्ण हो जाता है कि हम अपने धार्मिक ग्रन्थों से कुछ तो परिचित हों। निश्चित ही आधुनिक संचार साधनों से हमें इनके श्रवण का लाभ प्राप्त हो रहा है परन्तु सभी प्रकार के आयोजनों का अपना अलग महत्व है। भक्तों को जब व्यास पीठ के सम्मुख बैठकर नाम संकीर्तन, प्रभु गुणगान, कथा वार्ता श्रवण का अवसर मिलता है तो वे इसे अपने कर्मों का सुफल तथा प्रभु प्रसाद मानते है। वास्तविक सत्संग तो सामूहिक प्रभु गुणगान करने के लिए आयोजन का ही नाम है। भले ही उसका प्रारूप समय, स्थान और युगीन परिस्थितियों के अनुसार बदलता रहा हो। प्राचीन युग में ऋषि, मुनिगण, यज्ञ, सत्संग आदि का आयोजन तीर्थ स्थलों पर करते थे। जिसका उल्लेख तत्कालीन ग्रन्थों में प्रचूर मात्रा में उल्लिखित है।

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