Menu
Category All Category
Peetal ki Mori Gagri
by   Dr Meena Kumari (Author)  
by   Dr Meena Kumari (Author)   (show less)
Peetal ki Mori Gagri
Product Description

डॉ मीना कुमारी की पुस्तक ‘पीतल की मारे ी गागरी’ आपके हाथां े मं े
है। किसी भी पुस्तक के मूल टिप्पणीकार या समीक्षक, उसके पाठक होते है।
इस लिहाज से पुस्तक पढऩ े के बाद पाठकों की राय ही सर्वोपरि हागे ी। पर,
पहले पाठक के तौर पर पुस्तक की पाडं ुलिपि पढ़कर कह सकता हूं कि
लेि खका का यह प्रयास, सार्थक, सामयिक और समाज की आवश्यकता है।
पुस्तक ‘जल’ जैसे बुनियादी, पावन और अमल्ू य मानव अस्तित्व से जुड़े सबसे
महत्वपूर्ण ऐसे विषयां े पर, हिंदी लख्े ान जगत में कम बात होती है। पीतल की
गागरी इसी जल के संरक्षण, सगं ्रहण व संचयन की प्रतीक है। हालांकि पाठक
एसे े विषयों पर किताबें चाहते हैं। खबू पढ़ते भी हैं। वर्षों से अनुपम मिश्र की
कालजयी पुस्तक ‘आज भी खरे हैं तालाब’ से यह साबित हो रहा है। यह
किताब हिंदी में बेस्ट सेलर्स की सूची में निरतं र शामिल है। इस पुस्तक को
कई प्रकाशक प्रकाशित कर रहे हैं।
डॉ मीना जी के लख्े ान और पुस्तक के विभिन्न अध्यायों से ही स्पष्ट
है कि लोक परंपरा में इनकी गहरी रुचि व जानकारी है. इन्हांने े जल संस्कृति
के विविध आयामों पर श्रम से शोध किया है। किताब का पहला अध्याय है,
‘सामाजिक परम्पराएं, उत्सव, मले े एवं जल संस्कृति’। इस अध्याय में जलाशयों
के निर्माण, जलाशयों के नामकरण, जल प्रबंधन, जल से जुड़ े अनुष्ठान आदि
के बारे मं े विस्तार से चर्चा है। अत्यतं श्रम से एकत्र किए गए तथ्य ह।ैं दूसरा
अध्याय है, ‘लोकगीत एवं जल संस्कृति’। इस अध्याय में लेि खका ने वर्षा, जल,
जल की पूजा, जल की पर ंपरा, जल संचय, जल की आकांक्षा से जुड़े
लोकगीतों को संकलित-विश्लेषित किया हैं। अत्यंत रोचक और ज्ञान समृद्ध
करन े वाला अध्याय। तीसरा अध्याय, जल से जुड़ी लोकोक्तियों, मुहावरों का
है। भारतीय मानस मं े जल के महत्व को समझने मं े मददगार। और आखिरी
अध्याय जल संस्कृति से जुड़ी लोककथाआं े का है। इससे स्पष्ट है, भारतीय
सस्ं कृति और मानस मं े जल का क्या महत्व है।
पुस्तक के आरभ्ं ा में ही जल से भारतीय मन व जन के जुड़ाव का
विस्तृत विवरण है। सभ्यता के आरंभ में ही, वैदिक काल मं े ही, जल को हमने
दवे त्व की परिधि में रखा। शास्त्रीय परंपरा से इतर, लोक परंपरा में जीवन का

अहम हिस्सा हाने े से जल सर्वोपरि रहा ही. दुनिया से इतर हमारे देश में नदियों
को, जलाशयों को माँ कहा गया, माँ माना गया।
लगभग तीन दशक तक झारखंड मं े रहने का अनुभव है। करीब से
प्रकृति से जुड़े लोगों, समाज को देखन,े महससू ने का अवसर मिला है। जल,
जंगल और जमीन से किस तरह आम जन का, विशेष तौर से आदिवासियों का
भावनात्मक रिश्ता है, यह शहरी मानस नहीं समझ सकता। किस तरह से वे
छोट-े छोटे जलाशयों की भी हिफाजत करते ह,ैं आदिवासियों ने अपनी परू ी
परपं रा और अनुष्ठानों को ही इस कदर ढाला है कि अंततः सबका मकसद है,
इस सृष्टि और प्रकृति की रक्षा, जल, जगं ल, जमीन की समृद्धि और संरक्षण।
रांची से सटे बेड़ा,े लोहरदगा, गुमला के इलाके में ताना भगत समुदाय
के लोग रहते हैं। ये गांधी के जीवंत अनुयायी हैं। चपं ारण आंदोलन के दौरान
गांधी अक्सर रांची भी आते रह।े वजह, रांची तब, बिहार की ग्रीष्मकालीन
राजधानी थी। वह जब रांची गये, तो ताना भगतों के बारे मं े सुना। ताना भगतों
के बीच एक सुधारवादी नेता हुए, जतरा भगत। गांधी के वहाँ जाने के कुछ वर्षों
पहले वह गुजर चुके थे, उनका सुधारवादी आंदोलन भी बिखर रहा था।
गांधी को पता चला, तो रांची से दूर वे गये। उनकी जगह। वे लोग सफेद
कपड़ा पहनते थे। सफेद झडं ा लेकर चलते थे। गांधी उन लागे ां े से मिले।
सफेद झंडे को बदलवा दिया। उन्होंने तिरगं ा अपनाया। फिर गांधी टापे ी
पहनी। आज की तारीख मं े वह कहीं भी जाते हैं, तो वह तिरगं ा झंडा और
गांधी टोपी पहने उसी जीवन पद्धति के साथ जीते हैं। विरोध या सत्याग्रह मं े
उसी तरह घेराव करते हैं। उसी तरह सत्याग्रह करते हैं। रोज उनकी प्रार्थना
होती है। उस प्रार्थना का सार या आशय गौर करने लायक है। वे सामूहिक
रूप से कुड़ुख भाषा में प्रार्थना करते हैं। हिंदी मं े उसका सार इस प्रकार है-
हे धर्मेश, 1⁄4धर्मेश यानी धर्मों के ईश्वर1⁄2 दुनियां मं े सुख-शांि त देना।
प्रकृति को अच्छा बनाये रखना। बरखा-बूनी ठीक देना। यह सब ठीक रहेगा,
तो हमारे यहाँ कुटुम्ब, हित, मित्र, रिश्तेदार और अतिथि आयगें े। हम उनके यहाँ
जा सकेंग।े कुटुम्ब आयंगे े नही,ं हम जायंगे े नही,ं तो इस जीवन का, मतलब
क्या होगा? इसका आशय है, सब साथ-साथ सुखी रहें. निजता बोध न हो।
सामुदायिकता की भावना के साथ पूरा समाज सुखी रहे, इसकी
परिकल्पना उनके आदिवासी समाज में सदियों-सदियां े से रही। ‘‘बसुधैव
कुट ुंबकम’’ तर्ज पर कितनी सुंदर प्रार्थना है।

आज भी ताना भगत यही प्रार्थना करते हैं। फिर आगे प्रार्थना में उनका
अंश है कि हम आज फिर खते ी के लिए जा रहे ह।ैं खते ी करते वक्त कई जीवों
की हमसे हत्या हो जाती है। इसके लिए हमं े माफ करना, एसे ा अंजाने में होता
है।
यह असाधारण प्रार्थना है। ताना भगत समुदाय के लोग जिस इलाके
मं े रहते हैं, वे इलाके नक्सल इलाके रहे हैं। यह वह नक्सली क्षेत्र है, जहाँ मरे ी
टाइलर ने नक्सली आंदोलन पर सबसे चर्चित किताब लिखी थी। 1969-70
मं।े ‘‘माय इयर्स इन इंडियन प्रिजन’’ यह नक्सल आंदोलन, सारे इलाके में
सक्रिय रहा, पसरता रहा लेि कन ताना भगतां े के बीच नहीं गया। ताना भगत

जहाँ भी रहते हैं, आमतौर पर अपराध नहीं हाते े। होते भी होंग,े तो न्यनू तम.
पहले घरों मं े ताले नहीं होते थे।

इस प्रार्थना के मलू में है अच्छी बारिश की कामना, अहिसं ा का बोध
और सृष्टि, प्रकृति से लगाव। यही भारतीय पर ंपरा रही है।
हम सब, भारत की लाके परंपरा, आदिवासियों की जीवन शैली से
सीखे हाते ,े तो आज सृष्टि, प्रकृति के सामने जो संकट है, वह इतना गहरा नहीं
होता। आज परू ी दुनिया मं े ‘नीड’ वर्सेस ‘ग्रीड’ की बहस है। गांधी ने बहुत
पहले चते ाया था कि सृष्टि, प्रकृति हमारी जरूरतों को पूरा करने मं े सक्षम है,
लालच को नहीं। पर, इंसानी समुदाय न े अपने लालच में, भोग की संस्कृति
अपनाकर स्वकृविकास को ही मूल मंत्र मान बैठा। नतीजा आज सामने है।
क्लाइमटे चजं े से लके र अनेक तरह की चुनौतियां।
जलवायु परिवर्तन पर अंतर-सरकारी पैनल 1⁄4आईपीसीसी1⁄2 न े भारत
को एक ऐसे दश्े ा के रूप मं े रेखांकित किया है, जो जलवायु-परिवर्तन के
प्रभावों से विशेष रूप से खतरे में है। यह हम सब साफ देख रहे हैं। अचानक
बाढ़ और बड़े पैमाने पर जगं ल की आग से लेकर लबं े समय तक चलने वाली
गर्मी और सूखे के रूप मं।े नतीजा, जलस्रोत नष्ट हो रहे हैं। खेती-किसानी
के सामने सकं ट बढ़ता जा रहा है। अगस्त 2022, वर्ष 1901 के बाद से अब
तक का सबसे गर्म और शुष्क महीना था। तापमान 40 डिग्री सेि ल्सयस से
ऊपर बढ़ा। कुछ इलाकों में तो धरती का तापमान 60 डिग्री सेल्सियस तक
पहुँचा था।

इन चनु ौतियां े को महर्षि वदे व्यास ने दरू दर्शिता से हजारों साल पहले
ही रख्े ाांकित कर दिया था।
ग्लोबलाइजेशन के दौर में ग्लोबल विलजे की परिकल्पना और इसी
दौर में ग्लोबल-वार्मिग से मचनेवाली तबाही से आज दुनिया चिंतित है।
ग्लोबल वार्मिग के प्रभाव से तबाही की बात रोज हो रही है। तापमान वृद्धि,
जल सकं ट, खाद्यान्न सकं ट, ग्लेि शयर क्षरण, इन सबके दुष्प्रभाव, ऋतु चक्र
और पर्यावरण के स्वभाव में परिवर्तन, पशु-पौधों पर घातक असर दिखने लगे
हैं। गाँव में हो रहे बदलाव, शहरों की ओर पलायन, फैशन संस्कृति का एक
समान प्रभाव, कच्ची उम्र में उभरती कामुकता और हिंसक बचपन भी दिख रहा
है। आज जो दिख रहा है यह सब दर्ज है, महाभारत के वनपर्व 1⁄4महाभारत,
गीता प्रेस-गा ेरखप ुर, द्वितीय खंड-वनपर्व , मारकण्ड ेय-य ुधिष्ठिर स ंवाद,
पृ-1489-14941⁄2 अध्याय मं।े इस प्रसंग में युधिष्ठिर ने मारकण्डेय ऋषि से
कलियुग मं े प्रलयकाल ओर उसके अंत के बारे में जानना चाहा था, जिसका
उत्तर विस्तार से मारकण्डये ऋषि ने दिया था।
कलियुग के अंत के परिदृश्य के संदर्भ मं े मारकण्डये ऋषि ने विस्तार
से बताया था। उन्हाने े कहा था कि कलियुग के अंि तम भाग मं े प्रायः सभी
मनुष्य मिथ्यावादी हांगे े, उनके विचार और व्यवहार में अतं र आएगा। प्रलय के
लिए मानव ही जिम्मवे ार होगा। इस काल में सुगंि धत पदार्थ नासिका मं े उतने
गध्ं ायुक्त प्रतीत नहीं हांगे ,े रसीले पदार्थ स्वादिष्ट नहीं रहगें े। वृक्षों पर फल और
फलू बहुत कम रह जाएगं ।े उन पर बैठनवे ाले पक्षियों की विविधता भी कम
होगी। वन्य जीव, पशु-पक्षी अपने प्राकृतिक निवास के बजाय नागरिकों के
बनाए बगीचां े व विहाँरां े मं े भ्रमण करगं े ।े वन-बाग आरै वृक्षां े को लागे निदर्य तापर्वू क
काटगें े। भूमि में बाये े बीज ठीक प्रकार से नहीं उगेंगे। खते ां े की उपजाऊ शक्ति
समाप्त होगी, तालाब-चारागाह, नदियां े के तट की भूि म पर भी अतिक्रमण
होगा। स्थिति एसे ी भी आएगी, जब जनपद जनशून्य हाने े लगंगे ।े चारों ओर
प्रचण्ड तापमान संपणर््ू ा तालाबां,े सरिताआं े और नदियों के जल को सुखा देगा।
लबं े काल तक पृथ्वी पर वर्षा बंद हो जाएगी। समाज खाद्यान्न के लिए दसू रों
पर निर्भर हागे ा। थोड़े धन सगं ्रह कर धनाढ्य वर्ग उन्मत्त हो उठगे ा। जनपदों
की अपनी विशिष्टता खत्म होगी। सभी लोग एक स्वभाव-एक वेषभूषा धारण
करने लगंगे ।े समाज के ज्ञानी कपटपणर््ू ा जीविका चलाने को मजबूर हागें ।े लोग
अपनी चितं ा ही ज्यादा करंगे े, कैसे भी समृद्धि प्राप्त हो, इसी जुगत मं े रहेंग।े

आज गौर करं,े इन बातों पर और सामयिक हालात-जीवन पद्धति पर। इस
सकं ट की बड़ी वजह है, अपनी परंपराओं से, मूल्यां े से कट जाना।
विश्व मौसम विज्ञान सगं ठन ने रिपोर्ट 1⁄4‘‘स्टेट ऑफ ग्लोबल वाटर
रिसोर्सेज 2022’’1⁄2 तैयार की है। आगाह किया है कि क्लाइमटे चंजे और इसं ानी
हस्तक्षेप के कारण धरती पर मौजूद जल संसाधन बड़े पैमाने पर प्रभावित हो
रहे हैं। धरती का जल चक्र तेजी से तहस-नहस हो रहा है. इसी रिपोर्ट में
कहा गया है कि वर्तमान समय मं े वैश्विक स्तर पर करीब 360 करोड़ लोग
साल मं े कम से एक महीने जल संकट का सामना करने को मजबूर हैं। यह
आशकं ा और अनुमान है कि अगले 27 वर्षां े मं े 500 करोड़ लोग यह संकट
झले गें ।े आज हम संकट को रोजाना महसूस कर रहे हैं। अचानक सूखा। कहीं
भारी बारिश। इससे तरह-तरह की बीमारियां फैल रही ह।ैं नयी बीमारियों का
जन्म हो रहा है। हमारे देश के सामने संकट और गभ्ं ाीर है। वैश्विक आबादी
मं े हमारी हिस्सेदारी 16 प्रतिशत है, जबकि हमारे हिस्से मं े जल संसाधन चार
प्रतिशत है। पर, यह सृष्टि, प्रकृति की दने है। इसका प्रबंधन हमें ही करना
होगा।
इसी प्रबंधन शैली को जानने, समझन,े अपनाने मं े डॉ मीना कुमारी की
यह पुस्तक प्रभावी और सार्थक हस्तक्षपे करती है. जल का महत्व तो हम सब
समझते हैं, पर उससे भावनात्मक रिश्ता छोड़ रहे हैं. जल के प्रति सम्मान भाव
खत्म हो रहा है। कर्तव्य से विमुख होकर, सिर्फ हक और अधिकार जताने के
दौर मं े हैं, हम। पूरा विश्वास है कि जब हम ‘जल संस्कृति’ के लौकिक पक्ष को
जानगें े, तो सचते हागें े। हम कर्तव्यां े की ओर भी मुड़ेंग।े पुराने जमाने में लौटना,
पुरानी पद्धतियों को अपनाना, सिर्फ पुरातन होना नहीं होता। कहा गया है कि
समय के बदलाव के साथ रीतिया,ं नीतियां, महत्व, मान्यताए,ं प्रणालियां
बदलती हैं, पर मलू नहीं बदलता।

छिति-जल-पावक-गगन-समीरा... ही हमारे होने के मलू मं े है.
विज्ञान की लाख प्रगति के बावजदू , हमारा अस्तित्व इन पर ही निर्भर करता

है. यह पुस्तक मानव जीवन, इस सृष्टि को सुखी बनाने मं े मददगार होगी.

Product Details
ISBN 13 9788198966797
Book Language Hindi
Binding Hardcover
Total Pages 113
Edition 2025
Publisher Atal Prakashan
Author Dr. Meena Kumari
GAIN PCN5486UI6Y
Category Ficton  
Weight 375.00 g

Add a Review

0.0
0 Reviews
Product Description

डॉ मीना कुमारी की पुस्तक ‘पीतल की मारे ी गागरी’ आपके हाथां े मं े
है। किसी भी पुस्तक के मूल टिप्पणीकार या समीक्षक, उसके पाठक होते है।
इस लिहाज से पुस्तक पढऩ े के बाद पाठकों की राय ही सर्वोपरि हागे ी। पर,
पहले पाठक के तौर पर पुस्तक की पाडं ुलिपि पढ़कर कह सकता हूं कि
लेि खका का यह प्रयास, सार्थक, सामयिक और समाज की आवश्यकता है।
पुस्तक ‘जल’ जैसे बुनियादी, पावन और अमल्ू य मानव अस्तित्व से जुड़े सबसे
महत्वपूर्ण ऐसे विषयां े पर, हिंदी लख्े ान जगत में कम बात होती है। पीतल की
गागरी इसी जल के संरक्षण, सगं ्रहण व संचयन की प्रतीक है। हालांकि पाठक
एसे े विषयों पर किताबें चाहते हैं। खबू पढ़ते भी हैं। वर्षों से अनुपम मिश्र की
कालजयी पुस्तक ‘आज भी खरे हैं तालाब’ से यह साबित हो रहा है। यह
किताब हिंदी में बेस्ट सेलर्स की सूची में निरतं र शामिल है। इस पुस्तक को
कई प्रकाशक प्रकाशित कर रहे हैं।
डॉ मीना जी के लख्े ान और पुस्तक के विभिन्न अध्यायों से ही स्पष्ट
है कि लोक परंपरा में इनकी गहरी रुचि व जानकारी है. इन्हांने े जल संस्कृति
के विविध आयामों पर श्रम से शोध किया है। किताब का पहला अध्याय है,
‘सामाजिक परम्पराएं, उत्सव, मले े एवं जल संस्कृति’। इस अध्याय में जलाशयों
के निर्माण, जलाशयों के नामकरण, जल प्रबंधन, जल से जुड़ े अनुष्ठान आदि
के बारे मं े विस्तार से चर्चा है। अत्यतं श्रम से एकत्र किए गए तथ्य ह।ैं दूसरा
अध्याय है, ‘लोकगीत एवं जल संस्कृति’। इस अध्याय में लेि खका ने वर्षा, जल,
जल की पूजा, जल की पर ंपरा, जल संचय, जल की आकांक्षा से जुड़े
लोकगीतों को संकलित-विश्लेषित किया हैं। अत्यंत रोचक और ज्ञान समृद्ध
करन े वाला अध्याय। तीसरा अध्याय, जल से जुड़ी लोकोक्तियों, मुहावरों का
है। भारतीय मानस मं े जल के महत्व को समझने मं े मददगार। और आखिरी
अध्याय जल संस्कृति से जुड़ी लोककथाआं े का है। इससे स्पष्ट है, भारतीय
सस्ं कृति और मानस मं े जल का क्या महत्व है।
पुस्तक के आरभ्ं ा में ही जल से भारतीय मन व जन के जुड़ाव का
विस्तृत विवरण है। सभ्यता के आरंभ में ही, वैदिक काल मं े ही, जल को हमने
दवे त्व की परिधि में रखा। शास्त्रीय परंपरा से इतर, लोक परंपरा में जीवन का

अहम हिस्सा हाने े से जल सर्वोपरि रहा ही. दुनिया से इतर हमारे देश में नदियों
को, जलाशयों को माँ कहा गया, माँ माना गया।
लगभग तीन दशक तक झारखंड मं े रहने का अनुभव है। करीब से
प्रकृति से जुड़े लोगों, समाज को देखन,े महससू ने का अवसर मिला है। जल,
जंगल और जमीन से किस तरह आम जन का, विशेष तौर से आदिवासियों का
भावनात्मक रिश्ता है, यह शहरी मानस नहीं समझ सकता। किस तरह से वे
छोट-े छोटे जलाशयों की भी हिफाजत करते ह,ैं आदिवासियों ने अपनी परू ी
परपं रा और अनुष्ठानों को ही इस कदर ढाला है कि अंततः सबका मकसद है,
इस सृष्टि और प्रकृति की रक्षा, जल, जगं ल, जमीन की समृद्धि और संरक्षण।
रांची से सटे बेड़ा,े लोहरदगा, गुमला के इलाके में ताना भगत समुदाय
के लोग रहते हैं। ये गांधी के जीवंत अनुयायी हैं। चपं ारण आंदोलन के दौरान
गांधी अक्सर रांची भी आते रह।े वजह, रांची तब, बिहार की ग्रीष्मकालीन
राजधानी थी। वह जब रांची गये, तो ताना भगतों के बारे मं े सुना। ताना भगतों
के बीच एक सुधारवादी नेता हुए, जतरा भगत। गांधी के वहाँ जाने के कुछ वर्षों
पहले वह गुजर चुके थे, उनका सुधारवादी आंदोलन भी बिखर रहा था।
गांधी को पता चला, तो रांची से दूर वे गये। उनकी जगह। वे लोग सफेद
कपड़ा पहनते थे। सफेद झडं ा लेकर चलते थे। गांधी उन लागे ां े से मिले।
सफेद झंडे को बदलवा दिया। उन्होंने तिरगं ा अपनाया। फिर गांधी टापे ी
पहनी। आज की तारीख मं े वह कहीं भी जाते हैं, तो वह तिरगं ा झंडा और
गांधी टोपी पहने उसी जीवन पद्धति के साथ जीते हैं। विरोध या सत्याग्रह मं े
उसी तरह घेराव करते हैं। उसी तरह सत्याग्रह करते हैं। रोज उनकी प्रार्थना
होती है। उस प्रार्थना का सार या आशय गौर करने लायक है। वे सामूहिक
रूप से कुड़ुख भाषा में प्रार्थना करते हैं। हिंदी मं े उसका सार इस प्रकार है-
हे धर्मेश, 1⁄4धर्मेश यानी धर्मों के ईश्वर1⁄2 दुनियां मं े सुख-शांि त देना।
प्रकृति को अच्छा बनाये रखना। बरखा-बूनी ठीक देना। यह सब ठीक रहेगा,
तो हमारे यहाँ कुटुम्ब, हित, मित्र, रिश्तेदार और अतिथि आयगें े। हम उनके यहाँ
जा सकेंग।े कुटुम्ब आयंगे े नही,ं हम जायंगे े नही,ं तो इस जीवन का, मतलब
क्या होगा? इसका आशय है, सब साथ-साथ सुखी रहें. निजता बोध न हो।
सामुदायिकता की भावना के साथ पूरा समाज सुखी रहे, इसकी
परिकल्पना उनके आदिवासी समाज में सदियों-सदियां े से रही। ‘‘बसुधैव
कुट ुंबकम’’ तर्ज पर कितनी सुंदर प्रार्थना है।

आज भी ताना भगत यही प्रार्थना करते हैं। फिर आगे प्रार्थना में उनका
अंश है कि हम आज फिर खते ी के लिए जा रहे ह।ैं खते ी करते वक्त कई जीवों
की हमसे हत्या हो जाती है। इसके लिए हमं े माफ करना, एसे ा अंजाने में होता
है।
यह असाधारण प्रार्थना है। ताना भगत समुदाय के लोग जिस इलाके
मं े रहते हैं, वे इलाके नक्सल इलाके रहे हैं। यह वह नक्सली क्षेत्र है, जहाँ मरे ी
टाइलर ने नक्सली आंदोलन पर सबसे चर्चित किताब लिखी थी। 1969-70
मं।े ‘‘माय इयर्स इन इंडियन प्रिजन’’ यह नक्सल आंदोलन, सारे इलाके में
सक्रिय रहा, पसरता रहा लेि कन ताना भगतां े के बीच नहीं गया। ताना भगत

जहाँ भी रहते हैं, आमतौर पर अपराध नहीं हाते े। होते भी होंग,े तो न्यनू तम.
पहले घरों मं े ताले नहीं होते थे।

इस प्रार्थना के मलू में है अच्छी बारिश की कामना, अहिसं ा का बोध
और सृष्टि, प्रकृति से लगाव। यही भारतीय पर ंपरा रही है।
हम सब, भारत की लाके परंपरा, आदिवासियों की जीवन शैली से
सीखे हाते ,े तो आज सृष्टि, प्रकृति के सामने जो संकट है, वह इतना गहरा नहीं
होता। आज परू ी दुनिया मं े ‘नीड’ वर्सेस ‘ग्रीड’ की बहस है। गांधी ने बहुत
पहले चते ाया था कि सृष्टि, प्रकृति हमारी जरूरतों को पूरा करने मं े सक्षम है,
लालच को नहीं। पर, इंसानी समुदाय न े अपने लालच में, भोग की संस्कृति
अपनाकर स्वकृविकास को ही मूल मंत्र मान बैठा। नतीजा आज सामने है।
क्लाइमटे चजं े से लके र अनेक तरह की चुनौतियां।
जलवायु परिवर्तन पर अंतर-सरकारी पैनल 1⁄4आईपीसीसी1⁄2 न े भारत
को एक ऐसे दश्े ा के रूप मं े रेखांकित किया है, जो जलवायु-परिवर्तन के
प्रभावों से विशेष रूप से खतरे में है। यह हम सब साफ देख रहे हैं। अचानक
बाढ़ और बड़े पैमाने पर जगं ल की आग से लेकर लबं े समय तक चलने वाली
गर्मी और सूखे के रूप मं।े नतीजा, जलस्रोत नष्ट हो रहे हैं। खेती-किसानी
के सामने सकं ट बढ़ता जा रहा है। अगस्त 2022, वर्ष 1901 के बाद से अब
तक का सबसे गर्म और शुष्क महीना था। तापमान 40 डिग्री सेि ल्सयस से
ऊपर बढ़ा। कुछ इलाकों में तो धरती का तापमान 60 डिग्री सेल्सियस तक
पहुँचा था।

इन चनु ौतियां े को महर्षि वदे व्यास ने दरू दर्शिता से हजारों साल पहले
ही रख्े ाांकित कर दिया था।
ग्लोबलाइजेशन के दौर में ग्लोबल विलजे की परिकल्पना और इसी
दौर में ग्लोबल-वार्मिग से मचनेवाली तबाही से आज दुनिया चिंतित है।
ग्लोबल वार्मिग के प्रभाव से तबाही की बात रोज हो रही है। तापमान वृद्धि,
जल सकं ट, खाद्यान्न सकं ट, ग्लेि शयर क्षरण, इन सबके दुष्प्रभाव, ऋतु चक्र
और पर्यावरण के स्वभाव में परिवर्तन, पशु-पौधों पर घातक असर दिखने लगे
हैं। गाँव में हो रहे बदलाव, शहरों की ओर पलायन, फैशन संस्कृति का एक
समान प्रभाव, कच्ची उम्र में उभरती कामुकता और हिंसक बचपन भी दिख रहा
है। आज जो दिख रहा है यह सब दर्ज है, महाभारत के वनपर्व 1⁄4महाभारत,
गीता प्रेस-गा ेरखप ुर, द्वितीय खंड-वनपर्व , मारकण्ड ेय-य ुधिष्ठिर स ंवाद,
पृ-1489-14941⁄2 अध्याय मं।े इस प्रसंग में युधिष्ठिर ने मारकण्डेय ऋषि से
कलियुग मं े प्रलयकाल ओर उसके अंत के बारे में जानना चाहा था, जिसका
उत्तर विस्तार से मारकण्डये ऋषि ने दिया था।
कलियुग के अंत के परिदृश्य के संदर्भ मं े मारकण्डये ऋषि ने विस्तार
से बताया था। उन्हाने े कहा था कि कलियुग के अंि तम भाग मं े प्रायः सभी
मनुष्य मिथ्यावादी हांगे े, उनके विचार और व्यवहार में अतं र आएगा। प्रलय के
लिए मानव ही जिम्मवे ार होगा। इस काल में सुगंि धत पदार्थ नासिका मं े उतने
गध्ं ायुक्त प्रतीत नहीं हांगे ,े रसीले पदार्थ स्वादिष्ट नहीं रहगें े। वृक्षों पर फल और
फलू बहुत कम रह जाएगं ।े उन पर बैठनवे ाले पक्षियों की विविधता भी कम
होगी। वन्य जीव, पशु-पक्षी अपने प्राकृतिक निवास के बजाय नागरिकों के
बनाए बगीचां े व विहाँरां े मं े भ्रमण करगं े ।े वन-बाग आरै वृक्षां े को लागे निदर्य तापर्वू क
काटगें े। भूमि में बाये े बीज ठीक प्रकार से नहीं उगेंगे। खते ां े की उपजाऊ शक्ति
समाप्त होगी, तालाब-चारागाह, नदियां े के तट की भूि म पर भी अतिक्रमण
होगा। स्थिति एसे ी भी आएगी, जब जनपद जनशून्य हाने े लगंगे ।े चारों ओर
प्रचण्ड तापमान संपणर््ू ा तालाबां,े सरिताआं े और नदियों के जल को सुखा देगा।
लबं े काल तक पृथ्वी पर वर्षा बंद हो जाएगी। समाज खाद्यान्न के लिए दसू रों
पर निर्भर हागे ा। थोड़े धन सगं ्रह कर धनाढ्य वर्ग उन्मत्त हो उठगे ा। जनपदों
की अपनी विशिष्टता खत्म होगी। सभी लोग एक स्वभाव-एक वेषभूषा धारण
करने लगंगे ।े समाज के ज्ञानी कपटपणर््ू ा जीविका चलाने को मजबूर हागें ।े लोग
अपनी चितं ा ही ज्यादा करंगे े, कैसे भी समृद्धि प्राप्त हो, इसी जुगत मं े रहेंग।े

आज गौर करं,े इन बातों पर और सामयिक हालात-जीवन पद्धति पर। इस
सकं ट की बड़ी वजह है, अपनी परंपराओं से, मूल्यां े से कट जाना।
विश्व मौसम विज्ञान सगं ठन ने रिपोर्ट 1⁄4‘‘स्टेट ऑफ ग्लोबल वाटर
रिसोर्सेज 2022’’1⁄2 तैयार की है। आगाह किया है कि क्लाइमटे चंजे और इसं ानी
हस्तक्षेप के कारण धरती पर मौजूद जल संसाधन बड़े पैमाने पर प्रभावित हो
रहे हैं। धरती का जल चक्र तेजी से तहस-नहस हो रहा है. इसी रिपोर्ट में
कहा गया है कि वर्तमान समय मं े वैश्विक स्तर पर करीब 360 करोड़ लोग
साल मं े कम से एक महीने जल संकट का सामना करने को मजबूर हैं। यह
आशकं ा और अनुमान है कि अगले 27 वर्षां े मं े 500 करोड़ लोग यह संकट
झले गें ।े आज हम संकट को रोजाना महसूस कर रहे हैं। अचानक सूखा। कहीं
भारी बारिश। इससे तरह-तरह की बीमारियां फैल रही ह।ैं नयी बीमारियों का
जन्म हो रहा है। हमारे देश के सामने संकट और गभ्ं ाीर है। वैश्विक आबादी
मं े हमारी हिस्सेदारी 16 प्रतिशत है, जबकि हमारे हिस्से मं े जल संसाधन चार
प्रतिशत है। पर, यह सृष्टि, प्रकृति की दने है। इसका प्रबंधन हमें ही करना
होगा।
इसी प्रबंधन शैली को जानने, समझन,े अपनाने मं े डॉ मीना कुमारी की
यह पुस्तक प्रभावी और सार्थक हस्तक्षपे करती है. जल का महत्व तो हम सब
समझते हैं, पर उससे भावनात्मक रिश्ता छोड़ रहे हैं. जल के प्रति सम्मान भाव
खत्म हो रहा है। कर्तव्य से विमुख होकर, सिर्फ हक और अधिकार जताने के
दौर मं े हैं, हम। पूरा विश्वास है कि जब हम ‘जल संस्कृति’ के लौकिक पक्ष को
जानगें े, तो सचते हागें े। हम कर्तव्यां े की ओर भी मुड़ेंग।े पुराने जमाने में लौटना,
पुरानी पद्धतियों को अपनाना, सिर्फ पुरातन होना नहीं होता। कहा गया है कि
समय के बदलाव के साथ रीतिया,ं नीतियां, महत्व, मान्यताए,ं प्रणालियां
बदलती हैं, पर मलू नहीं बदलता।

छिति-जल-पावक-गगन-समीरा... ही हमारे होने के मलू मं े है.
विज्ञान की लाख प्रगति के बावजदू , हमारा अस्तित्व इन पर ही निर्भर करता

है. यह पुस्तक मानव जीवन, इस सृष्टि को सुखी बनाने मं े मददगार होगी.

Product Details
ISBN 13 9788198966797
Book Language Hindi
Binding Hardcover
Total Pages 113
Edition 2025
Publisher Atal Prakashan
Author Dr. Meena Kumari
GAIN PCN5486UI6Y
Category Ficton  
Weight 375.00 g

Add a Review

0.0
0 Reviews
Peetal ki Mori Gagri
by   Dr Meena Kumari (Author)  
by   Dr Meena Kumari (Author)   (show less)
₹1,095.00₹876.00
Usually Dispatched within 3-4 Business Days
₹1,095.00₹876.00
Usually Dispatched within 3-4 Business Days
whatsapp