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Kaho To Keh Du
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बबूल का कांटा बड़ा होता है लगने पर एक ओर से दूसरी ओर निकल जाता है पर गुलाब का कांटा छोटा होता है। लग जाये तो चुभन हो होती है पर उसे निकालना कठिन हो जाता है। वह अंदर ही अंदर अपनी यात्रा प्रारंभ कर देता है। वह घाव बनाता है फिर मवाद निकालता है। उसका एक ही उपाय है चीर-फाड़ करा लो। चीर-फाड़ कराया व्यक्ति उम्मीद में रहता है कि आज नहीं तो कल वह इस वेदना से उबर ही जायेगा।पर व्यंग्यों के साथ यह सुविधा नहीं हैं। व्यंग्य खाया व्यक्ति झुंझलाता रहता है "वह” देख लेंगे की मानसिकता से अपने आपको ढाढ़स बंधाता रहता है। व्यंग्य व्यक्ति को चिढ़ाने के लिए नहीं होते, सुधारने के लिए होते हैं पर व्यक्ति चिढ़ता है, वह सुधरता नहीं है। उसमें सुधरने का शक्ति बची ही नहीं है। व्यक्ति हो या समाज या व्यवस्था ये "व्यंग्य प्रूफ” हो चुकी हैं हम देशी भाषा में इसे "औंधा घड़ा" कह सकते हैं, जिसके ऊपर पानी की एक बूंद तक नहीं टिकती। मेरे जैसे व्यंग्यकार “भैंस के आगे बीन बजाने" का ही प्रयास करते हैं। बीन टूट जाती पर भैंस अपनी प्रतिक्रिया तक नहीं देती ।वह अपने तन पर मक्खी बैठने का अहसास कर पूंछ हिलाकर उसे भगाने का प्रयास कर लेती है। उसे शायद मच्छर के काटने का भी अहसास होता है पर मेरी बीन को अनसुना कर देती है। मैं अपने आप में तसल्ली कर लेता हूं कि भैंसे ने भले ही अपनी पूछ न हिलाई हो पर उसने मेरी बीन की आवाज सुनी अवश्य होगी। वह अपना मोटापन लिए नाच नहीं सकती इस कारण वह बीन को अनसुना कर देती है। व्यंग्यकार ऐसी ही तसल्लियों का टॉनिक पीकर जिन्दा रहता है। दूसरों को आईना दिखाने के चक्कर में उसका स्वयं का शरीर कुरूप हो जाता है, पर वह अपने लेखन नहीं छोड़ता।
Product Details
| ISBN 13 | 9789386498892 |
| Book Language | Hindi |
| Binding | Paperback |
| Total Pages | 112 |
| Author | KUSHALENDRA SRIVASTAVA |
| Editor | 2018 |
| GAIN | YD5F4T7DXJ1 |
| Category | Books Fiction Short stories |
| Weight | 150.00 g |
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बबूल का कांटा बड़ा होता है लगने पर एक ओर से दूसरी ओर निकल जाता है पर गुलाब का कांटा छोटा होता है। लग जाये तो चुभन हो होती है पर उसे निकालना कठिन हो जाता है। वह अंदर ही अंदर अपनी यात्रा प्रारंभ कर देता है। वह घाव बनाता है फिर मवाद निकालता है। उसका एक ही उपाय है चीर-फाड़ करा लो। चीर-फाड़ कराया व्यक्ति उम्मीद में रहता है कि आज नहीं तो कल वह इस वेदना से उबर ही जायेगा।पर व्यंग्यों के साथ यह सुविधा नहीं हैं। व्यंग्य खाया व्यक्ति झुंझलाता रहता है "वह” देख लेंगे की मानसिकता से अपने आपको ढाढ़स बंधाता रहता है। व्यंग्य व्यक्ति को चिढ़ाने के लिए नहीं होते, सुधारने के लिए होते हैं पर व्यक्ति चिढ़ता है, वह सुधरता नहीं है। उसमें सुधरने का शक्ति बची ही नहीं है। व्यक्ति हो या समाज या व्यवस्था ये "व्यंग्य प्रूफ” हो चुकी हैं हम देशी भाषा में इसे "औंधा घड़ा" कह सकते हैं, जिसके ऊपर पानी की एक बूंद तक नहीं टिकती। मेरे जैसे व्यंग्यकार “भैंस के आगे बीन बजाने" का ही प्रयास करते हैं। बीन टूट जाती पर भैंस अपनी प्रतिक्रिया तक नहीं देती ।वह अपने तन पर मक्खी बैठने का अहसास कर पूंछ हिलाकर उसे भगाने का प्रयास कर लेती है। उसे शायद मच्छर के काटने का भी अहसास होता है पर मेरी बीन को अनसुना कर देती है। मैं अपने आप में तसल्ली कर लेता हूं कि भैंसे ने भले ही अपनी पूछ न हिलाई हो पर उसने मेरी बीन की आवाज सुनी अवश्य होगी। वह अपना मोटापन लिए नाच नहीं सकती इस कारण वह बीन को अनसुना कर देती है। व्यंग्यकार ऐसी ही तसल्लियों का टॉनिक पीकर जिन्दा रहता है। दूसरों को आईना दिखाने के चक्कर में उसका स्वयं का शरीर कुरूप हो जाता है, पर वह अपने लेखन नहीं छोड़ता।
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| ISBN 13 | 9789386498892 |
| Book Language | Hindi |
| Binding | Paperback |
| Total Pages | 112 |
| Author | KUSHALENDRA SRIVASTAVA |
| Editor | 2018 |
| GAIN | YD5F4T7DXJ1 |
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