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11 KAHANIYA BALRAM (11 कहानियां बलराम )

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टीवी के सामने बैठे थे वे तीनों। पति, पत्नी और बच्चा। बच्चा कार्टून फिल्मों का शौकीन था, किसी अच्छे पब्लिक स्कूल में जिसके दाखिले के लिए वे चिंतित और प्रयासरत थे। पिछले साल से ही। दाखिले की चिंता में डूबे वे दोनों अनुमानित खर्च के जुगाड़ और किसी पॉवरफुल सोर्स की तलाश पर चर्चा करते हुए कई बार देर रात तक सो नहीं पाते। प्रॉपर्टी के दामों में उछाल के दौर में फ्लैट खरीदा तो उन्हें यार- दोस्तों के अलावा सिटी बैंक और अपने दफ्तरों से भी कई लाख का लोन लेना पड़ा, जिसकी भारी-भरकम किस्तें हर महीने पति-पत्नी के वेतन से कट जातीं तो पहली तारीख को वे कोल्हू में पिरे गन्ने की तरह घर लौटते। तब पत्नी अपनी किस्मत को कोसती, जिसमें न तो मायके से किसी इमदाद की बात दर्ज थी, न ही ससुराल से पूंजी भांग तक मिलने का कहीं कोई उल्लेख था। जो कुछ करना था, खुद ही करना था। जो कुछ होना था, अपने आप होना था। खुद ही हंसना और खुद ही रोना लिखा था उसमें। मायके या ससुराल, कहीं भी खुद ही जाना और खुद ही लौट आना था। न कोई लेने आता, न कोई भेजने। किसी से न कुछ मिलना-मिलाना था, न किसी को कुछ देना-दवाना था।
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टीवी के सामने बैठे थे वे तीनों। पति, पत्नी और बच्चा। बच्चा कार्टून फिल्मों का शौकीन था, किसी अच्छे पब्लिक स्कूल में जिसके दाखिले के लिए वे चिंतित और प्रयासरत थे। पिछले साल से ही। दाखिले की चिंता में डूबे वे दोनों अनुमानित खर्च के जुगाड़ और किसी पॉवरफुल सोर्स की तलाश पर चर्चा करते हुए कई बार देर रात तक सो नहीं पाते। प्रॉपर्टी के दामों में उछाल के दौर में फ्लैट खरीदा तो उन्हें यार- दोस्तों के अलावा सिटी बैंक और अपने दफ्तरों से भी कई लाख का लोन लेना पड़ा, जिसकी भारी-भरकम किस्तें हर महीने पति-पत्नी के वेतन से कट जातीं तो पहली तारीख को वे कोल्हू में पिरे गन्ने की तरह घर लौटते। तब पत्नी अपनी किस्मत को कोसती, जिसमें न तो मायके से किसी इमदाद की बात दर्ज थी, न ही ससुराल से पूंजी भांग तक मिलने का कहीं कोई उल्लेख था। जो कुछ करना था, खुद ही करना था। जो कुछ होना था, अपने आप होना था। खुद ही हंसना और खुद ही रोना लिखा था उसमें। मायके या ससुराल, कहीं भी खुद ही जाना और खुद ही लौट आना था। न कोई लेने आता, न कोई भेजने। किसी से न कुछ मिलना-मिलाना था, न किसी को कुछ देना-दवाना था।
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