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Hindi natak or rangmanch me loktatav

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आमुख नाटक एक दृश्य विधा है और उसका दृश्यत्व जहाँ सार्थकता ग्रहण करता है वह रंगमंच है। नाटक जीवन के अधिक निकट है। यह उस समय और भी अधिक व्यवहारिक एवं उपयोगी लगने लगता है जब रंगमंच पर अभिनीत होता है, क्योंकि रंगमंच जीवन का प्रतिबिम्ब है। रंगमंच पर अभिनेता के माध्यम से जो अभिनय किया जा रहा है उसके साथ जीवन का सीधा संबंध स्थापित हो जाता है। वस्तुतः नाटक का आरम्भ रंगमंच से ही होता है और अवसान भी रंगमंच में ही। रंगमंच जब कृतिबद्ध होता है तो नाटक कहलाता है और खेले जाने के बाद वह रंगमंच बन जाता है। नाटक की सफलता, असफलता का बहुत बड़ा भार रंगमंच की सुविधा, असुविधा एवं उपयुक्तता, अनुपयुक्तता पर निर्भर है। साहित्य में नाट्य और रंगमंच एक ऐसी विधा है जिसमें कलात्मकता, सृजनात्मकता और साहित्यिक श्रेष्ठता सभी का सम्मिलित रूप होता है।भारत विभिन्न सांस्कृतिक जनपदों का रंगस्थल है। यहाँ एक ओर लोकसंस्कृति के गर्भ से उद्भूत वैदिक संस्कृति और उससे विकसित औपनिवेषिक एवं पौराणिक संस्कृतियाँ फल-फूल रही हैं, तो दूसरी ओर वहीं लोकसंस्कृति अपने जनपदीय स्वरूपों में एकान्त भाव से जी रही है। वैदिक काल में धार्मिक अनुष्ठानों के साथ-साथ कुछ लोकजक राग-रंग, क्रीड़ा- कौतुक, नृत्य-गान आदि का आयोजन किया जाता था। कालान्तर में इन्हें ही समन्वित कर नाट्य रूप में व्यवस्थित किया गया। अतः भारतीय लोकनाट्य की परम्परा शास्त्रीय नाट्यों से अधिक प्राचीन और अपेक्षाकृत अधिक व्यापक है। ऐसे जनपदीय नाट्यों को ही परम्पराशील नाट्य, लोकधर्मी नाट्य और लोकनाट्य की संज्ञा दी जाती है।भारत में नाटक और रंगमंच परम्परा बहुत प्राचीन है। लोक नाटक एवं लोक रंगमंच का उदय भी बहुत प्राचीन काल से हुआ है। मानव के विकास के साथ-साथ उसका लोक जीवन भी एक आकार लेता चला गया। विविध उत्सवों, अनुष्ठानों, मेलों-ठेलों, वार-त्योहारों तथा धार्मिक संस्कारों पर लोक अपने बहुरंगे उल्लास में उमड़ पड़ता है और रंगमंच पर नृत्य की अदायगियों एवं संगीत की स्वर लहरियों में भाव विह्वल हो अपने समग्र जीवन की सुखान्त शाश्वतता को साकार हुआ देखता है।
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आमुख नाटक एक दृश्य विधा है और उसका दृश्यत्व जहाँ सार्थकता ग्रहण करता है वह रंगमंच है। नाटक जीवन के अधिक निकट है। यह उस समय और भी अधिक व्यवहारिक एवं उपयोगी लगने लगता है जब रंगमंच पर अभिनीत होता है, क्योंकि रंगमंच जीवन का प्रतिबिम्ब है। रंगमंच पर अभिनेता के माध्यम से जो अभिनय किया जा रहा है उसके साथ जीवन का सीधा संबंध स्थापित हो जाता है। वस्तुतः नाटक का आरम्भ रंगमंच से ही होता है और अवसान भी रंगमंच में ही। रंगमंच जब कृतिबद्ध होता है तो नाटक कहलाता है और खेले जाने के बाद वह रंगमंच बन जाता है। नाटक की सफलता, असफलता का बहुत बड़ा भार रंगमंच की सुविधा, असुविधा एवं उपयुक्तता, अनुपयुक्तता पर निर्भर है। साहित्य में नाट्य और रंगमंच एक ऐसी विधा है जिसमें कलात्मकता, सृजनात्मकता और साहित्यिक श्रेष्ठता सभी का सम्मिलित रूप होता है।भारत विभिन्न सांस्कृतिक जनपदों का रंगस्थल है। यहाँ एक ओर लोकसंस्कृति के गर्भ से उद्भूत वैदिक संस्कृति और उससे विकसित औपनिवेषिक एवं पौराणिक संस्कृतियाँ फल-फूल रही हैं, तो दूसरी ओर वहीं लोकसंस्कृति अपने जनपदीय स्वरूपों में एकान्त भाव से जी रही है। वैदिक काल में धार्मिक अनुष्ठानों के साथ-साथ कुछ लोकजक राग-रंग, क्रीड़ा- कौतुक, नृत्य-गान आदि का आयोजन किया जाता था। कालान्तर में इन्हें ही समन्वित कर नाट्य रूप में व्यवस्थित किया गया। अतः भारतीय लोकनाट्य की परम्परा शास्त्रीय नाट्यों से अधिक प्राचीन और अपेक्षाकृत अधिक व्यापक है। ऐसे जनपदीय नाट्यों को ही परम्पराशील नाट्य, लोकधर्मी नाट्य और लोकनाट्य की संज्ञा दी जाती है।भारत में नाटक और रंगमंच परम्परा बहुत प्राचीन है। लोक नाटक एवं लोक रंगमंच का उदय भी बहुत प्राचीन काल से हुआ है। मानव के विकास के साथ-साथ उसका लोक जीवन भी एक आकार लेता चला गया। विविध उत्सवों, अनुष्ठानों, मेलों-ठेलों, वार-त्योहारों तथा धार्मिक संस्कारों पर लोक अपने बहुरंगे उल्लास में उमड़ पड़ता है और रंगमंच पर नृत्य की अदायगियों एवं संगीत की स्वर लहरियों में भाव विह्वल हो अपने समग्र जीवन की सुखान्त शाश्वतता को साकार हुआ देखता है।
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