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Divya Manav Nirman Mein Divya Chintan
by   Rashtraputra Sh. Kripasindhu (Author)  
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Divya Manav Nirman Mein Divya Chintan
Product Description
जैसे चित्त में राग रहने से द्वेष भी रहता है अर्थात्् अगर आपके मन में किसी के प्रति राग रहेगा तो यह निश्चित बात है कि अन्य किसी के प्रति आपके मन में द्वेष भी रहेगा। इस क्लेश रूप नकारात्मक भाव को भी आप अपने कल्याण के लिए, हित के लिए, पवित्रता के लिए, उन्नति के लिए उपयोग कर सकते हैं, क्योंकि अधिकांश सांसारिक अथवा लौकिक लोगों के भीतर, अपितु, कई निवृत्ति मार्ग के साधकों में भी यह भाव दिखाई देता है। इसलिए मैंने यही उदाहरण लिया है समझाने के लिए, क्योंकि,जो स्वभाव अधिकतर लोगों में दिखाई देता है, उसका उदाहरण देने से सबको आसानी से समझ में आ जाता है और उसको ग्रहण करके चरितार्थ करने में भी आसान हो जाती है। इसलिए मैं कहता हूँ अविद्या को, अज्ञानता को, मूर्खता को, मिथ्याज्ञान को, बुद्धिहीनता को, छल-कपट को, अविवेक को, अजागरूकता को, अचेतनता को, अस्वच्छता को, negligency, आलस्य, प्रमाद, बेहोशी, ईर्ष्या, हिंसा, लोभ, अपुरुषार्थता, अकर्मण्यता, अन्याय, असत्य को त्याग करने के लिए उनके प्रति प्रेम या राग के बजाय घृणा एवं द्वेष कीजिए। तब उनके जो विपरीत गुण, कर्म, स्वभाव हैं, अर्थात्् विद्या, ज्ञान, विवेक, पुरुषार्थता, स्वच्छता, सरलता, अहिंसा, न्याय, सत्य आदि के प्रति राग भाव पोषण करके आप निश्चय ही श्रेष्ठ गुणों को प्रेम कर सकते हैं। क्योंकि, मनुष्य जिनको प्रेम करता हैं, या जिनके प्रति मनुष्यों का राग होता हैं, उनको प्राप्त करने के लिए प्रयत्न करता हैं, पुरुषार्थ करता हैं। सोच लीजिए कोई रुपए से प्रेम करता है, तो वह व्यक्ति रुपए को अधिकाधिक रोजगार करने के लिए समय लगाएगा, पुरुषार्थ करेगा।
Product Details
ISBN 13 9789394369887
Book Language Hindi
Binding Paperback
Total Pages 112
Author Rashtraputra Sh. Kripasindhu
Editor 2023
GAIN EIIM8645Q9Q
Product Dimensions 5.50 x 8.50
Category Packages   Historical Books Package  
Weight 120.00 g

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जैसे चित्त में राग रहने से द्वेष भी रहता है अर्थात्् अगर आपके मन में किसी के प्रति राग रहेगा तो यह निश्चित बात है कि अन्य किसी के प्रति आपके मन में द्वेष भी रहेगा। इस क्लेश रूप नकारात्मक भाव को भी आप अपने कल्याण के लिए, हित के लिए, पवित्रता के लिए, उन्नति के लिए उपयोग कर सकते हैं, क्योंकि अधिकांश सांसारिक अथवा लौकिक लोगों के भीतर, अपितु, कई निवृत्ति मार्ग के साधकों में भी यह भाव दिखाई देता है। इसलिए मैंने यही उदाहरण लिया है समझाने के लिए, क्योंकि,जो स्वभाव अधिकतर लोगों में दिखाई देता है, उसका उदाहरण देने से सबको आसानी से समझ में आ जाता है और उसको ग्रहण करके चरितार्थ करने में भी आसान हो जाती है। इसलिए मैं कहता हूँ अविद्या को, अज्ञानता को, मूर्खता को, मिथ्याज्ञान को, बुद्धिहीनता को, छल-कपट को, अविवेक को, अजागरूकता को, अचेतनता को, अस्वच्छता को, negligency, आलस्य, प्रमाद, बेहोशी, ईर्ष्या, हिंसा, लोभ, अपुरुषार्थता, अकर्मण्यता, अन्याय, असत्य को त्याग करने के लिए उनके प्रति प्रेम या राग के बजाय घृणा एवं द्वेष कीजिए। तब उनके जो विपरीत गुण, कर्म, स्वभाव हैं, अर्थात्् विद्या, ज्ञान, विवेक, पुरुषार्थता, स्वच्छता, सरलता, अहिंसा, न्याय, सत्य आदि के प्रति राग भाव पोषण करके आप निश्चय ही श्रेष्ठ गुणों को प्रेम कर सकते हैं। क्योंकि, मनुष्य जिनको प्रेम करता हैं, या जिनके प्रति मनुष्यों का राग होता हैं, उनको प्राप्त करने के लिए प्रयत्न करता हैं, पुरुषार्थ करता हैं। सोच लीजिए कोई रुपए से प्रेम करता है, तो वह व्यक्ति रुपए को अधिकाधिक रोजगार करने के लिए समय लगाएगा, पुरुषार्थ करेगा।
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ISBN 13 9789394369887
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Binding Paperback
Total Pages 112
Author Rashtraputra Sh. Kripasindhu
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