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सोचता हूं क्यों लिखा गया यह उपन्यास घर, परिवार तथा स्वास्थ्य की अनेक समस्याओं एवं व्यस्तताओं के बीच समय की खींच तान करते हुए। सबसे पहले तो यह दुविधा कि इसे लिखूं भी या नहीं लिखें, फिर क्या लिखूं, क्या छोडू, की कशमकश से भी गुज़रते हुए। किंतु बार बार यह लगा कि उम्र के इस आखिरी पड़ाव पर आकर ईमानदार अभिव्यक्ति से कैसा समझौता करना, क्यों इसका गला घोंटना, क्यों न जीवन के विशद महाभारत का एक अत्यंत लघु अँश ऐसा ही प्रस्तुत करूं जैसा कि वह है मनुष्य मन की रहस्यमयी, तिलस्मी शक्तियों का खेला, विविध अन्तर्द्वन्द्वों का मेला, और फिर धरती-आकाश के विशाल दो पाटों के बीच पिसता-घिसता, रिसता रहता बेचारा हर इंसान अकेला। इंसान को ये दो रगड़ते-से पाट अक्सर रिश्तों के पाट बन जाते हैं,
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सोचता हूं क्यों लिखा गया यह उपन्यास घर, परिवार तथा स्वास्थ्य की अनेक समस्याओं एवं व्यस्तताओं के बीच समय की खींच तान करते हुए। सबसे पहले तो यह दुविधा कि इसे लिखूं भी या नहीं लिखें, फिर क्या लिखूं, क्या छोडू, की कशमकश से भी गुज़रते हुए। किंतु बार बार यह लगा कि उम्र के इस आखिरी पड़ाव पर आकर ईमानदार अभिव्यक्ति से कैसा समझौता करना, क्यों इसका गला घोंटना, क्यों न जीवन के विशद महाभारत का एक अत्यंत लघु अँश ऐसा ही प्रस्तुत करूं जैसा कि वह है मनुष्य मन की रहस्यमयी, तिलस्मी शक्तियों का खेला, विविध अन्तर्द्वन्द्वों का मेला, और फिर धरती-आकाश के विशाल दो पाटों के बीच पिसता-घिसता, रिसता रहता बेचारा हर इंसान अकेला। इंसान को ये दो रगड़ते-से पाट अक्सर रिश्तों के पाट बन जाते हैं,
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₹144.00

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