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एक पुस्तक जिसके 2018 में पहली बार प्रकाशित होने के बाद से भारतीय अर्थव्यवस्था के तीन सर्वोच्च पदों (आरबीआई गवर्नर, मुख्य आर्थिक सलाहकार और नीति आयोग के उपाध्यक्ष) पर एक भी आयातित अर्थशास्त्री नियुक्त नहीं किए गए।
वैश्विक अर्थव्यवस्था की विवेचना करते हुए आसानी से समझ में आने वाले 110 चार्ट और टेबल के साथ ।
“कभी-कभी, एक बाहरी व्यक्ति क्षेत्रके विशेषज्ञों से अधिक बेहतर ढंग से आँकड़ों का विश्लेषण कर सकता है ।”
— डॉ अरविन्द गुप्ता
विवेकानंद इंटरनेशनल फाउंडेशन (वीआईएफ) के तत्कालीन निदेशक और भूतपूर्व उप-राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार (पुस्तक के प्रथम संस्करण के आलोक में मार्च 2018 में डॉ सुस्मित कुमार द्वारा दिए गए वार्ता के दौरान परिचय कराते हुए)
द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान, जब हिटलर का लगभग पूरे यूरोप पर कब्जा था, और यूरोप की अर्थव्यवस्था पूरी तरह बर्बाद हो चुकी थी और उन्हें अपने पुनर्निर्माण के लिए अमेरिका से बहुत अधिक सहायता की आवश्यकता थी, और जब अधिकतर दूसरे देश उपनिवेशवाद के अधीन थे, तब अमेरिका ने अपनी मुद्रा को वैश्विक मुद्रा बना दिया । जब भी अमेरिका को अपने व्यापार घाटा या बजट घाटा को वित्तपोषित करना होता है, तो वह बस अपनी मुद्रा छाप लेता है । कार्नेगी मेलन विश्वविद्यालय के अर्थशास्त्री ऐलन एच मेल्टज़र के अनुसार: हम (अमेरिका) कागज के टुकड़ों, जिनको हम बहुत तेजी से छाप सकते हैं, के बदले सस्ते उत्पाद प्राप्त करते हैं ।
अमेरिकी डॉलर एक पॉन्ज़ी योजना है । चीन और अन्य देशों से अपने आयातों के लिए अमेरिका मात्र अपनी मुद्रा “छाप” लेता है और बदले में निर्यात करने वाले देशों, जिसमें भारत भी शामिल है, को अमेरिका में डॉलर का निवेश करना पड़ता है; या तो अमेरिकी राजकोषीय बॉन्ड में या अमेरिकी शेयर बाजार में । भारत अमेरिका की तरह अपनी मुद्रा छाप कर अपने बजट और व्यापार घाटे को वित्तपोषित नहीं कर सकता ।
अमेरिका के अतिरिक्त, तीन दूसरी आर्थिक महाशक्तियों (जर्मनी, जापान और चीन) के पास तीन दशकों से अधिक समय से व्यापार अधिशेष (trade surplus) रहा है, जबकि भारत में तीन दशकों के उदारीकरण के बाद भी एक भी वर्ष व्यापार अधिशेष नहीं रहा – इस स्थिति के पीछे हैं “आयातित” अमेरिकी अर्थशास्त्री, जो विनाशकारी “रीगनॉमिक्स” लागू करवाते हैं और उसी का गुणगान करते हैं । भारत कभी भी आर्थिक महाशक्ति तब तक नहीं बन सकता जब तक उसके पास चीन की तरह अधिकाधिक मात्रा में विदेशी मुद्रा जमा नहीं हो जाता है । इसके अलावा भारत को अनेक आयामों में त्वरित तौर पर आत्म-निर्भर होने की आवश्यकता है । अमेरिका में 1980 के दशक से चली आ रही “रीगनॉमिक्स” नीतियों ने अमेरिका को दिवालिया कर दिया है और उसके लगभग राष्ट्रीय निर्माण एवं सेवा क्षेत्र की नौकरियों को दूसरे देश में भेज दिया है ।
अमेरिकी अर्थशास्त्रियों, प्रबंधन गुरुओं और वॉल स्ट्रीट ने चीन के रूप में एक भस्मासुर खड़ा कर दिया है और अमेरिका को चीन के हाथों बेच दिया है । 1990 के दशक से चीन ने लगातार व्यापार अधिशेष बनाया है और $4 ट्रिलियन ($4 लाख करोड़) विदेशी मुद्रा जमा कर लिया है, और अमेरिकी डॉलर के स्थान पर चीन का युआन वैश्विक मुद्रा बनने की कगार पर है । अमेरिकी पूँजीवाद तेजी से ‘1991 सोवियत संघ के विखंडन’ वाले पल की तरफ अग्रसर है जिसके कारण वैश्विक अर्थव्यवस्था को 1930 के दशक से भी बड़ी आर्थिक मंदी का सामना करना पड़ेगा ।
अनुक्रमणिका:
अ
आयातित वस्तुओं का असर:
आयातित वस्तुओं की छुपी हुई कीमत 21
किसके $1 ट्रिलियन (100 खरब) को चीन एक-बेल्ट-एक-सड़क (OBOR) पर खर्च कर रहा है? 24
ब
व्यापार घाटा:
व्यापार घाटा: सुरक्षा की तरह देखे जाने की आवश्यकता 29
1980 के उत्तरार्ध में तेल के दामों के गिरने, जर्मन बैंकों के टूटने से गिरा साम्यवाद: रीगन की वजह से नहीं 30
1997 पूर्वी एशियाई आर्थिक संकट 33
2001 अर्जेन्टीना आर्थिक संकट और आईएमएफ 38
2009 यूरो संकट43
आईएमएफ: आई ऐमफिनिश्ड (I’M Finished)47
स
अमेरिकी अर्थव्यवस्था:
अमेरिकी डॉलर: एक पॉन्जी योजना 55
अमेरिका पर विदेशी कर्ज 59
रीगनॉमिक्स 66
अमेरिकी अर्थव्यवस्था: जल्द ही डूबने को तैयार आज का ‘टाइटैनिक’68
अमेरिकी डॉलर और अर्थव्यवस्था पर चीन की जकड़ 77
शेयरधारक पहले: अमेरिकी अर्थव्यवस्था की बर्बादी का कारण 84
अमेरिका में मध्यमवर्ग का नेस्तनाबूद होना 98
इंटरनेट तकनीक का आगमन और वॉलस्ट्रीट 103
आय में असमानता: अमेरिकी अर्थव्यवस्था के लिए एक त्रासदी 110
क्रेडिट रेटिंग एजेंसियाँ और अमेरिकी रेटिंग121
वॉलस्ट्रीट फल (सामान्य अर्थव्यवस्था) से रस निकाल लेता है 123
अत्यधिक अमीर और वॉलस्ट्रीट: अमेरिकी विज्ञान और तकनीक पर विनाशकारी प्रभाव 126
संघीय बैंक का 2008 से अत्यंत कम ब्याज दर रखने का नतीजा: बुलबुली अर्थव्यवस्था 129
अमेरिका के बड़े बैंक और कम्पनियाँ: इतने बड़े कि असफल नहीं होने दिया जा सकता 134
अमेरिकी आर्थिक मॉडल: भारत में लागू करने योग्य नहीं 136
डॉलर का शस्त्रीकरण (Weaponisation)और रूस-यूक्रेन युद्ध 140
वैश्विक अर्थव्यवस्था में डॉलर-विमुक्तिकरण और अमेरिकी अर्थव्यवस्था पर विनाशकारी प्रभाव 143
जेफ बेजोज़ के $200 बिलियन: अमेरिका द्वारा चीन को दिए गए लाखों अच्छे वेतन वाले रोजगारों की राख पर खड़ी इमारत 159
द
भारतीय अर्थव्यवस्था:
भारत की दुखती रग: कच्चे तेल के दाम 165
वैश्विक अर्थव्यवस्था में दो प्रतिस्पर्धी मॉडल 168
अमेरिकी अर्थशास्त्री और भारतीय अर्थव्यवस्था 174
भारत का व्यापार घाटा 182
व्यापार घाटा और भारत का $2.5 ट्रिलियन की “गायब” विदेशी मुद्रा 186
मोदी प्रशासन की ‘मेक इन इंडिया’ नीति और नीति आयोग 190
रुपया और आइएमएफ का मुद्राओं का ‘एसडीआर बास्केट’196
भारत में असमानता 198
बैंकों के ‘एनपीए’, ‘शेयरधारक पहले’ और आम आदमी 202
वैश्विक मुद्रा के रूप में चीन का युआन: भारत के लिए दुःस्वप्न 205
प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में उभरता भारत 211
ह
भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए अनुशंसाएँ:
अनुशंसाएँ 215
निजीकरण, क्रय शक्ति और सहकारी उपक्रम 219
व्यापार अधिशेष: शीघ्रातिशीघ्र 222
आर्थिक असमानता को कम करना 228
प्रबंधन-श्रमिक समन्वय (को-डिटर्मिनेशन) 233
भारत और कीनीज़ के सिद्धांत पर आधारित प्रोत्साहन 235
भारी खपत वाली वस्तुओं में शीघ्रातिशीघ्र आत्म-निर्भरता 239
आर्थिक महाशक्ति होने के फायदे: आर्थिक प्रोत्साहन के लिए असीमित पैसा 241
प्रस्तावना:
मार्च 2017 से अगस्त 2017 के बीच में मैंने भारतीय अर्थव्यवस्था पर बहुत सारे लेख लिखे, जो मेरी वेबसाईट पर उपलब्ध हैं । विभिन्न चार्टों और टेबलों के जरिए मैंने ये दिखाया कि 1991 में आर्थिक उदारीकरण के बाद भारतीय अर्थव्यवस्था गलत दिशा में चली गई, मुख्यतः भारतीय मूल के अमेरिकी (या ‘आयातित’) अर्थशास्त्रियों, जो अधिकतर समय उच्च पदों पर आसीन हो कर भारत की आर्थिक नीतियों का निर्धारण करते थे और उन्हें प्रभावित करते थे, के कारण ।
20 मई, 2017 को मैंने 37 पृष्ठों का एक लेख, “नीति आयोग: क्यों इसे नई दिशा और नए नेतृत्व की आवश्यकता है?” (मेरी वेबसाईट पर उपलब्ध), नीति आयोग के 200 से अधिक अधिकारियों और वित्त, विदेश, वाणिज्य और व्यापार विभागों के लगभग 100 उच्च पदस्थ नौकरशाहों को भेजा ।इन अधिकारियों को मैंने मार्च 2017 से लिखे हुए सारे लेख भेजे । उस 37-पृष्ठों के लेख में 14 चार्ट और 7 टेबल हैं जिसमें पर्याप्त आर्थिक आँकड़ें उपलब्ध हैं जो नीति आयोग द्वारा आर्थिक मोर्चे पर की जा रहीं गड़बड़ियों को साबित कर रहे थे । एक वरिष्ठ भारतीय जनता पार्टी के सदस्य के अनुसार, प्रधानमंत्री ने निजी तौर पर मेरे कुछ लेखों को पढ़ा और अपने लोगों के बीच उसे प्रसारित करवाया । ऐसा कहा जाता है कि उसके बाद नीति आयोग के उपाध्यक्ष अरविंद पणगढ़िया ने मई 2017 में त्याग पत्र दे दिया । ये महज एक इत्तेफाक नहीं था कि डॉ पणगढ़िया ने मेरे नीति आयोग के कार्यकलापों को लेकर लिखे गए सारगर्भित लेखों के भेजे जाने के एक सप्ताह बाद, या उसके आस-पास, त्याग पत्र दे दिया ।
इस पुस्तक का 2018 में प्रकाशित प्रथम संसकरण मूलतः मेरे 2017 के उन लेखों पर आधारित था । इस पुस्तक के सम्पादन के लिए, मैं बड़े हर्ष के साथ धन्यवाद करता हूँ ट्रोंडओवरलैंड का; मैं धन्यवाद करता हूँ ओक्लाहोमा स्टेट यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर राज एन सिंह और पेनिसिलवेनिया स्टेट यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर दिनेश अगरवाल का विचार-विमर्श के लिए जिससे मुझे बहुत सहायता मिली । मैं सदैव आभारी हूँ मेरे पीएचडी के सलाहकार, स्वर्गीय प्रोफेसरस्टीवर्ट के कुर्टज़ का, जिन्होंने मुझे शोध करना और शोध पत्र लिखना सिखाया । मैं आभार प्रकट करता हूँ अपनी स्वर्गीय माता जी का, जिन्होंने इतने प्रकार से मुझे प्रेरित किया और मार्गदर्शन दिया, जिन्हें मैं शब्दों में नहीं कह सकता ।
2023 का ये द्वितीय संस्करण 2018 के प्रथम संस्करण का अद्यतन संस्करण है, जिनमें ताजा आँकड़े, नई व्याख्याएँ और नए अध्याय भी हैं ।
- सुस्मित कुमार, पीएचडी
ISBN 13 | 9798885751766 |
Book Language | Hindi |
Binding | Paperback |
Publishing Year | 2024 |
Total Pages | 288 |
Edition | 2nd |
GAIN | W90SI2E631L |
Publishers | Garuda Prakashan |
Category | Education Business & Economics |
Weight | 300.00 g |
Dimension | 15.50 x 23.00 x 2.00 |
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एक पुस्तक जिसके 2018 में पहली बार प्रकाशित होने के बाद से भारतीय अर्थव्यवस्था के तीन सर्वोच्च पदों (आरबीआई गवर्नर, मुख्य आर्थिक सलाहकार और नीति आयोग के उपाध्यक्ष) पर एक भी आयातित अर्थशास्त्री नियुक्त नहीं किए गए।
वैश्विक अर्थव्यवस्था की विवेचना करते हुए आसानी से समझ में आने वाले 110 चार्ट और टेबल के साथ ।
“कभी-कभी, एक बाहरी व्यक्ति क्षेत्रके विशेषज्ञों से अधिक बेहतर ढंग से आँकड़ों का विश्लेषण कर सकता है ।”
— डॉ अरविन्द गुप्ता
विवेकानंद इंटरनेशनल फाउंडेशन (वीआईएफ) के तत्कालीन निदेशक और भूतपूर्व उप-राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार (पुस्तक के प्रथम संस्करण के आलोक में मार्च 2018 में डॉ सुस्मित कुमार द्वारा दिए गए वार्ता के दौरान परिचय कराते हुए)
द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान, जब हिटलर का लगभग पूरे यूरोप पर कब्जा था, और यूरोप की अर्थव्यवस्था पूरी तरह बर्बाद हो चुकी थी और उन्हें अपने पुनर्निर्माण के लिए अमेरिका से बहुत अधिक सहायता की आवश्यकता थी, और जब अधिकतर दूसरे देश उपनिवेशवाद के अधीन थे, तब अमेरिका ने अपनी मुद्रा को वैश्विक मुद्रा बना दिया । जब भी अमेरिका को अपने व्यापार घाटा या बजट घाटा को वित्तपोषित करना होता है, तो वह बस अपनी मुद्रा छाप लेता है । कार्नेगी मेलन विश्वविद्यालय के अर्थशास्त्री ऐलन एच मेल्टज़र के अनुसार: हम (अमेरिका) कागज के टुकड़ों, जिनको हम बहुत तेजी से छाप सकते हैं, के बदले सस्ते उत्पाद प्राप्त करते हैं ।
अमेरिकी डॉलर एक पॉन्ज़ी योजना है । चीन और अन्य देशों से अपने आयातों के लिए अमेरिका मात्र अपनी मुद्रा “छाप” लेता है और बदले में निर्यात करने वाले देशों, जिसमें भारत भी शामिल है, को अमेरिका में डॉलर का निवेश करना पड़ता है; या तो अमेरिकी राजकोषीय बॉन्ड में या अमेरिकी शेयर बाजार में । भारत अमेरिका की तरह अपनी मुद्रा छाप कर अपने बजट और व्यापार घाटे को वित्तपोषित नहीं कर सकता ।
अमेरिका के अतिरिक्त, तीन दूसरी आर्थिक महाशक्तियों (जर्मनी, जापान और चीन) के पास तीन दशकों से अधिक समय से व्यापार अधिशेष (trade surplus) रहा है, जबकि भारत में तीन दशकों के उदारीकरण के बाद भी एक भी वर्ष व्यापार अधिशेष नहीं रहा – इस स्थिति के पीछे हैं “आयातित” अमेरिकी अर्थशास्त्री, जो विनाशकारी “रीगनॉमिक्स” लागू करवाते हैं और उसी का गुणगान करते हैं । भारत कभी भी आर्थिक महाशक्ति तब तक नहीं बन सकता जब तक उसके पास चीन की तरह अधिकाधिक मात्रा में विदेशी मुद्रा जमा नहीं हो जाता है । इसके अलावा भारत को अनेक आयामों में त्वरित तौर पर आत्म-निर्भर होने की आवश्यकता है । अमेरिका में 1980 के दशक से चली आ रही “रीगनॉमिक्स” नीतियों ने अमेरिका को दिवालिया कर दिया है और उसके लगभग राष्ट्रीय निर्माण एवं सेवा क्षेत्र की नौकरियों को दूसरे देश में भेज दिया है ।
अमेरिकी अर्थशास्त्रियों, प्रबंधन गुरुओं और वॉल स्ट्रीट ने चीन के रूप में एक भस्मासुर खड़ा कर दिया है और अमेरिका को चीन के हाथों बेच दिया है । 1990 के दशक से चीन ने लगातार व्यापार अधिशेष बनाया है और $4 ट्रिलियन ($4 लाख करोड़) विदेशी मुद्रा जमा कर लिया है, और अमेरिकी डॉलर के स्थान पर चीन का युआन वैश्विक मुद्रा बनने की कगार पर है । अमेरिकी पूँजीवाद तेजी से ‘1991 सोवियत संघ के विखंडन’ वाले पल की तरफ अग्रसर है जिसके कारण वैश्विक अर्थव्यवस्था को 1930 के दशक से भी बड़ी आर्थिक मंदी का सामना करना पड़ेगा ।
अनुक्रमणिका:
अ
आयातित वस्तुओं का असर:
आयातित वस्तुओं की छुपी हुई कीमत 21
किसके $1 ट्रिलियन (100 खरब) को चीन एक-बेल्ट-एक-सड़क (OBOR) पर खर्च कर रहा है? 24
ब
व्यापार घाटा:
व्यापार घाटा: सुरक्षा की तरह देखे जाने की आवश्यकता 29
1980 के उत्तरार्ध में तेल के दामों के गिरने, जर्मन बैंकों के टूटने से गिरा साम्यवाद: रीगन की वजह से नहीं 30
1997 पूर्वी एशियाई आर्थिक संकट 33
2001 अर्जेन्टीना आर्थिक संकट और आईएमएफ 38
2009 यूरो संकट43
आईएमएफ: आई ऐमफिनिश्ड (I’M Finished)47
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अमेरिकी अर्थव्यवस्था:
अमेरिकी डॉलर: एक पॉन्जी योजना 55
अमेरिका पर विदेशी कर्ज 59
रीगनॉमिक्स 66
अमेरिकी अर्थव्यवस्था: जल्द ही डूबने को तैयार आज का ‘टाइटैनिक’68
अमेरिकी डॉलर और अर्थव्यवस्था पर चीन की जकड़ 77
शेयरधारक पहले: अमेरिकी अर्थव्यवस्था की बर्बादी का कारण 84
अमेरिका में मध्यमवर्ग का नेस्तनाबूद होना 98
इंटरनेट तकनीक का आगमन और वॉलस्ट्रीट 103
आय में असमानता: अमेरिकी अर्थव्यवस्था के लिए एक त्रासदी 110
क्रेडिट रेटिंग एजेंसियाँ और अमेरिकी रेटिंग121
वॉलस्ट्रीट फल (सामान्य अर्थव्यवस्था) से रस निकाल लेता है 123
अत्यधिक अमीर और वॉलस्ट्रीट: अमेरिकी विज्ञान और तकनीक पर विनाशकारी प्रभाव 126
संघीय बैंक का 2008 से अत्यंत कम ब्याज दर रखने का नतीजा: बुलबुली अर्थव्यवस्था 129
अमेरिका के बड़े बैंक और कम्पनियाँ: इतने बड़े कि असफल नहीं होने दिया जा सकता 134
अमेरिकी आर्थिक मॉडल: भारत में लागू करने योग्य नहीं 136
डॉलर का शस्त्रीकरण (Weaponisation)और रूस-यूक्रेन युद्ध 140
वैश्विक अर्थव्यवस्था में डॉलर-विमुक्तिकरण और अमेरिकी अर्थव्यवस्था पर विनाशकारी प्रभाव 143
जेफ बेजोज़ के $200 बिलियन: अमेरिका द्वारा चीन को दिए गए लाखों अच्छे वेतन वाले रोजगारों की राख पर खड़ी इमारत 159
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भारतीय अर्थव्यवस्था:
भारत की दुखती रग: कच्चे तेल के दाम 165
वैश्विक अर्थव्यवस्था में दो प्रतिस्पर्धी मॉडल 168
अमेरिकी अर्थशास्त्री और भारतीय अर्थव्यवस्था 174
भारत का व्यापार घाटा 182
व्यापार घाटा और भारत का $2.5 ट्रिलियन की “गायब” विदेशी मुद्रा 186
मोदी प्रशासन की ‘मेक इन इंडिया’ नीति और नीति आयोग 190
रुपया और आइएमएफ का मुद्राओं का ‘एसडीआर बास्केट’196
भारत में असमानता 198
बैंकों के ‘एनपीए’, ‘शेयरधारक पहले’ और आम आदमी 202
वैश्विक मुद्रा के रूप में चीन का युआन: भारत के लिए दुःस्वप्न 205
प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में उभरता भारत 211
ह
भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए अनुशंसाएँ:
अनुशंसाएँ 215
निजीकरण, क्रय शक्ति और सहकारी उपक्रम 219
व्यापार अधिशेष: शीघ्रातिशीघ्र 222
आर्थिक असमानता को कम करना 228
प्रबंधन-श्रमिक समन्वय (को-डिटर्मिनेशन) 233
भारत और कीनीज़ के सिद्धांत पर आधारित प्रोत्साहन 235
भारी खपत वाली वस्तुओं में शीघ्रातिशीघ्र आत्म-निर्भरता 239
आर्थिक महाशक्ति होने के फायदे: आर्थिक प्रोत्साहन के लिए असीमित पैसा 241
प्रस्तावना:
मार्च 2017 से अगस्त 2017 के बीच में मैंने भारतीय अर्थव्यवस्था पर बहुत सारे लेख लिखे, जो मेरी वेबसाईट पर उपलब्ध हैं । विभिन्न चार्टों और टेबलों के जरिए मैंने ये दिखाया कि 1991 में आर्थिक उदारीकरण के बाद भारतीय अर्थव्यवस्था गलत दिशा में चली गई, मुख्यतः भारतीय मूल के अमेरिकी (या ‘आयातित’) अर्थशास्त्रियों, जो अधिकतर समय उच्च पदों पर आसीन हो कर भारत की आर्थिक नीतियों का निर्धारण करते थे और उन्हें प्रभावित करते थे, के कारण ।
20 मई, 2017 को मैंने 37 पृष्ठों का एक लेख, “नीति आयोग: क्यों इसे नई दिशा और नए नेतृत्व की आवश्यकता है?” (मेरी वेबसाईट पर उपलब्ध), नीति आयोग के 200 से अधिक अधिकारियों और वित्त, विदेश, वाणिज्य और व्यापार विभागों के लगभग 100 उच्च पदस्थ नौकरशाहों को भेजा ।इन अधिकारियों को मैंने मार्च 2017 से लिखे हुए सारे लेख भेजे । उस 37-पृष्ठों के लेख में 14 चार्ट और 7 टेबल हैं जिसमें पर्याप्त आर्थिक आँकड़ें उपलब्ध हैं जो नीति आयोग द्वारा आर्थिक मोर्चे पर की जा रहीं गड़बड़ियों को साबित कर रहे थे । एक वरिष्ठ भारतीय जनता पार्टी के सदस्य के अनुसार, प्रधानमंत्री ने निजी तौर पर मेरे कुछ लेखों को पढ़ा और अपने लोगों के बीच उसे प्रसारित करवाया । ऐसा कहा जाता है कि उसके बाद नीति आयोग के उपाध्यक्ष अरविंद पणगढ़िया ने मई 2017 में त्याग पत्र दे दिया । ये महज एक इत्तेफाक नहीं था कि डॉ पणगढ़िया ने मेरे नीति आयोग के कार्यकलापों को लेकर लिखे गए सारगर्भित लेखों के भेजे जाने के एक सप्ताह बाद, या उसके आस-पास, त्याग पत्र दे दिया ।
इस पुस्तक का 2018 में प्रकाशित प्रथम संसकरण मूलतः मेरे 2017 के उन लेखों पर आधारित था । इस पुस्तक के सम्पादन के लिए, मैं बड़े हर्ष के साथ धन्यवाद करता हूँ ट्रोंडओवरलैंड का; मैं धन्यवाद करता हूँ ओक्लाहोमा स्टेट यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर राज एन सिंह और पेनिसिलवेनिया स्टेट यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर दिनेश अगरवाल का विचार-विमर्श के लिए जिससे मुझे बहुत सहायता मिली । मैं सदैव आभारी हूँ मेरे पीएचडी के सलाहकार, स्वर्गीय प्रोफेसरस्टीवर्ट के कुर्टज़ का, जिन्होंने मुझे शोध करना और शोध पत्र लिखना सिखाया । मैं आभार प्रकट करता हूँ अपनी स्वर्गीय माता जी का, जिन्होंने इतने प्रकार से मुझे प्रेरित किया और मार्गदर्शन दिया, जिन्हें मैं शब्दों में नहीं कह सकता ।
2023 का ये द्वितीय संस्करण 2018 के प्रथम संस्करण का अद्यतन संस्करण है, जिनमें ताजा आँकड़े, नई व्याख्याएँ और नए अध्याय भी हैं ।
- सुस्मित कुमार, पीएचडी
ISBN 13 | 9798885751766 |
Book Language | Hindi |
Binding | Paperback |
Publishing Year | 2024 |
Total Pages | 288 |
Edition | 2nd |
GAIN | W90SI2E631L |
Publishers | Garuda Prakashan |
Category | Education Business & Economics |
Weight | 300.00 g |
Dimension | 15.50 x 23.00 x 2.00 |
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